Wednesday, September 10, 2008

न मंच की, न प्रपंच की, कविता मोहताज नहीं किसी सरपंच की

न मंच की
न प्रपंच की
कविता मोहताज नहीं
किसी सरपंच की

कई बार सुनने में आता है कि कविता में सुधार की आवश्यकता है। इसमें छंद ठीक नहीं है। गेयता का अभाव है। लय नहीं जम रही है। शब्दों का चुनाव संदिग्ध है।

ख़लिश जी के शब्दों में -
(http://launch.groups.yahoo.com/group/ekavita/message/19654?threaded=1)
कविता, गायन और संगीत का अटूट नाता है। कविता पहला कदम है, जैसे जवानी आना। गायन दूसरा कदम है, जैसे जवानी के साथ सौंदर्य होना। संगीत तीसरा कदम है, जैसे साज-सज्जा-आभूषणों से सौंदर्य निखारना। जवानी न हो तो बाकी दोनों गौण हो जाते हैं. छंद दोष हो तो वह खटकेगा ही, चाहे गायक और वादक उसे सम्हालने का कितना ही प्रयत्न करें।

कई बार ऐसी बहस हो चुकी है, जहाँ आम धारणा ये होती है कि जो कविताए अतुकांत होती है वे गद्य समझी जानी चाहिए। कवि ने सिर्फ़ शब्दों को आगे पीछे कर दिया है और वाक्यों को बीच में ही तोड़कर, एक वाक्य की तीन पंक्तियां बना डाली।

जहाँ तक मेरा विचार है, कविता में एक प्रवाह आवश्यक हो सकता है, लेकिन गेयता अनिवार्य नहीं है। तुकांत होने की कोई शर्त नहीं है। ग़ज़ल का अपना नियम है। और वो अपनी जगह ठीक है। दोहे, सोरठे, चौपाईयां, कुंडली आदि अपने अपने नियम निर्वाह करती हैं। लेकिन कविता कविता है। इसे ग़ज़ल का जामा पहनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।

गेयता पर जोर देन का एक कारण यह भी हो सकता है कि इन दिनों पढ़ने वाले कम है और देखने-सुनने वाले कम है। मंच पर और यू-ट्यूब पर कविताओं का बोलबाला है। पत्रिकाओं और ब्लाग पर कविताएँ कम पढ़ी जाती हैं।

दूसरा पहलू जो इन दिनों दिखने में आया है, वो है कविता को किसी उस्ताद से, गुरु से रिव्यू करवाना, उसमें संशोधन करना और फिर जन-साधारण के सामने प्रस्तुत करना। कविता की भावना, सिर्फ़ कवि ही समझ सकता है। एक टीम नहीं। धीरे धीरे कविता कविता न रह कर एक प्रोडक्ट बन जाती है। असली कविता से कोसो दूर।

अगर ख़लिश जी की उपमा का सहारा लूँ तो कविता के दिल तक जाने के लिए पहले आभूषण उतारने होगे, फिर सौंदर्य से आँख चुरानी होगी, तब जा कर कहीं युवती नज़र आएगी। स्थूल रुप से ये संभव है। लेकिन कविता के उपमा-अलंकारों को आभूषण की तरह उतारा नहीं जा सकता। ऐसी कविता की गहराई तक पहुँचना असंभव है, जिस पर अनावश्यक सुंदरता थोपी गई हो, या आभूषण लादे गए हो।

मैंने हिंदी 10वीं कक्षा तक केंद्रीय विद्यालय में पढ़ी है। लेकिन 11-12वीं में चलने वाली पुस्तक 'चयनिका' खरीद कर रख ली थी। इस बार वो दिल्ली से सिएटल आ गई। इसे नामवर सिंह ने संपादित किया है। 1979 में छपी इस पुस्तक का मूल्य था 3 रुपये 45 पैसें।

इसमें 22 कवियों का परिचय और उनकी चुनींदा रचनाएँ हैं। पहले कवि कबीर हैं और 22 वें अली सरदार जाफ़री। इन कविताओं को जब पढ़ा तो इस तथ्य की पुष्टि हुई कि कविता एक दूसरे से काफ़ी भिन्न हो सकती है। सब को एक जैसा करने का प्रयत्न व्यर्थ है। जैसे कि जलाशय कई प्रकार के होते हैं - नदी, तालाब, पोखर, झरना, झील, समंदर। सब का अपना अस्तित्व है। एक स्थान है। वैसे ही कविताओं में विविधता हर्ष का विषय है न कि सुधार का।

'चयनिका' में सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय 16 वें स्थान पर है। पहले उनका परिचय फिर उनकी कविता।

परिचय - अज्ञेय का जन्म 1911 में कसया (जिला देवरिया) में पुरातत्व खुदाई शिविर में हुआ। बचपन लखनाऊ, श्रीनगर और जम्मू में बीता। मूलत: ये विज्ञान के विद्यार्थी थे, किंतु साहित्य में रुचि होने के कारण एम-ए (अंग्रेज़ी) में दाखिल हुए तथा एक साल बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़कर जेल गए। अज्ञेय ने अपने जीवन में अनेक नौकरियाँ कीं और छोड़ दीं। अनेक यात्राएँ की देश में भी और विदेश में भी। 'सैनिक', 'विशाल भारत', 'प्रतीक', 'दिनमान' का कुछ दिनों तक संपादन किया। आजकल (1979) नव भारत टाईम्स (दैनिक) और 'नया प्रतीक' (मासिक) का संपादन कर रहे हैं। उनकी मुख्य काव्य कृतियाँ हैं - 'भग्नदूत','हरी घास पर क्षण भर', 'बावरा अहेरी', 'इंद्रधनु रौंदे हुए ये', 'अरी ओ करुणा प्रभामय', 'आँगन के पार द्वार', 'सागर मुद्रा' आदि। इसके अलावा कई कहानी संग्रह, उपन्यास, यात्रा-साहित्य और आलोचनाएँ भी लिखी हैं। अज्ञेय ने 'तारसप्तक' (1943), दूसरा सप्तक (1952), और तीसरा सप्तक (1959) का भी संपादन किया।

हिंदी अज्ञेय की मातृभाषा नहीं है, हिंदी उन्होंने सीखी है। उनकी प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत और अंग्रेज़ी में हुई। इसलिए वात्स्यायन संस्कृतनिष्ठ परंपरा में पले अंग्रेज़ी संस्कारों के ब्यक्ति हैं।

अज्ञेय हिंदी में प्रयोगवाद और नयी कविता के प्रवर्तक माने जाते हैं। उनकी रुचि प्रगीत कविता की ओर ही रही है। अज्ञेय शब्द-शिल्पी हैं - निर्वैयक्तिकता की हद तक सजग्। उन्होंने शब्दों को माँजकर सटीक अर्थ भरने का अथक प्रयास किया है।

अज्ञेय की कविता

नदी के द्वीप

हम नदी के द्वीप हैं।
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।

माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं।
किंतु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।
किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।

और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?
रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।
अनुपयोगी ही बनाएँगे।

द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप। यह अपनी नियती है।
हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी की क्रोड में।
वह बृहत भूखंड से हम को मिलाती है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
नदी तुम बहती चलो।
भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, सस्कार देती चलो। यदि ऐसा कभी हो -

तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के,
किसी स्वैराचार से, अतिचार से,
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे -
यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल,
प्रावाहिनी बन जाए -
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर।
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।

('बावरा अहेरी' से)

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स्रोतस्विनी = नदी, परंपरा प्रवाह का प्रतीक
सैकत = पथरीला, रेतीला
कूल = किनारा
प्लावन = बाढ़
सलिल = पानी
नियति = भवितव्य, प्राप्य
क्रोड = गोद
भूखंड = पृथ्वी, प्रतीकार्थ, समाज
दाय = समाज से उत्तराधिकार में प्राप्त
स्वैराचार = मनमानापन